भारत में वैदिक सभ्यता के समय से ही गाय को पवित्र पशु माना जाता है। ऋग्वैदिक काल के आर्य लोगों की संस्कृति ग्रामीण और कबीलाई थी। इन लोगों का प्राथमिक कार्य 'पशुपालन' था, जबकि कृषि उनके लिए गौण कार्य था। वे लोग पशुओं की सेवा को विशेष महत्व देते थे। ऋग्वैदिक काल में गाय को सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण पशु माना जाता था। गाय के द्वारा दूध प्राप्त किया जाता था। साथ ही गाय का प्रयोग विनिमय के साधन के रूप में किया जाता था। आर्यों की अधिकांश लड़ाइयाँ गायों को लेकर ही होती थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों की मूल सम्पत्ति गाय थी। गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले को मृत्युदण्ड अथवा देश निकाला दिया जाता था। अतः वेदों के समय में गाय को सबसे पवित्र पशु माना जाता था। यही सर्वोचित परम्परा वर्तमान में भी जारी है।
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ऋग्वैदिक साहित्य से गाय से सम्बन्धित अनेक शब्द प्राप्त हुए हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण शब्द निम्नलिखित हैं–
1. अष्टकर्णी– ऋग्वेदिक आर्यों ने गाय को अष्टकर्णी कहा है। यह शब्द गाय के ऊपर स्वामित्व का सूचक है।
2. गविष्टि– यह गाय की महत्ता बताने वाला शब्द है।
3. अघन्या– ऋग्वैदिक आर्यों ने गाय को अघन्या कहा है। अघन्या का शाब्दिक अर्थ 'न मारे जाने योग्य पशु' होता है।
4. दुहिता– ऋग्वैदिक काल में पुत्री को 'दुहिता' कहा जाता था, क्योंकि वह गाय का दूध दुहती थी। इस काल में 'पणि' नामक व्यापारी पशुओं की चोरी के लिए कुख्यात थे।
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ऋग्वैदिक काल के प्रमुख पशु निम्नलिखित हैं–
1. गाय
2. घोड़ा
3. बैल
4. भैंस
5. बकरी
6. ऊँट।
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आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
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R. F. Tembhre
(Teacher)
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